नव वर्ष पर नवगीत
संजीव 'सलिल'
*
महाकाल के महाग्रंथ का
नया पृष्ठ फिर आज खुल रहा....
*
वह काटोगे,
जो बोया है.
वह पाओगे,
जो खोया है.
सत्य-असत, शुभ-अशुभ तुला पर
कर्म-मर्म सब आज तुल रहा....
*
खुद अपना
मूल्यांकन कर लो.
निज मन का
छायांकन कर लो.
तम-उजास को जोड़ सके जो
कहीं बनाया कोई पुल रहा?...
*
तुमने कितने
बाग़ लगाये?
श्रम-सीकर
कब-कहाँ बहाए?
स्नेह-सलिल कब सींचा?
बगिया में आभारी कौन गुल रहा?...
*
स्नेह-साधना करी
'सलिल' कब.
दीन-हीन में
दिखे कभी रब?
चित्रगुप्त की कर्म-तुला पर
खरा कौन सा कर्म तुल रहा?...
*
खाली हाथ
न रो-पछताओ.
कंकर से
शंकर बन जाओ.
ज़हर पियो, हँस अमृत बाँटो.
देखोगे मन मलिन धुल रहा...
**********************
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'बड़ा दिन'
संजीव 'सलिल'
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.
बनें सहायक नित्य किसी के-
पूरा करदें उसका सपना.....
*
केवल खुद के लिए न जीकर
कुछ पल औरों के हित जी लें.
कुछ अमृत दे बाँट, और खुद
कभी हलाहल थोडा पी लें.
बिना हलाहल पान किये, क्या
कोई शिवशंकर हो सकता?
बिना बहाए स्वेद धरा पर
क्या कोई फसलें बो सकता?
दिनकर को सब पूज रहे पर
किसने चाहा जलना-तपना?
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
निज निष्ठा की सूली पर चढ़,
जो कुरीत से लड़े निरंतर,
तन पर कीलें ठुकवा ले पर-
न हो असत के सम्मुख नत-शिर.
करे क्षमा जो प्रतिघातों को
रख सद्भाव सदा निज मन में.
बिना स्वार्थ उपहार बाँटता-
फिरे नगर में, डगर- विजन में.
उस ईसा की, उस संता की-
'सलिल' सीख ले माला जपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
जब दाना चक्की में पिसता,
आटा बनता, क्षुधा मिटाता.
चक्की चले समय की प्रति पल
नादां पिसने से घबराता.
स्नेह-साधना कर निज प्रतिभा-
सूरज से कर जग उजियारा.
देश, धर्म, या जाति भूलकर
चमक गगन में बन ध्रुवतारा.
रख ऐसा आचरण बने जो,
सारी मानवता का नपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
(भारत में क्रिसमस को 'बड़ा दिन' कहा जाता है.)
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शोक गीत:
-आचार्य संजीव 'सलिल'
(प्रसिद्ध कवि-कथाकार-प्रकाशक, स्व. डॉ. (प्रो.) दिनेश खरे, विभागाध्यक्ष सिविल इंजीनियरिंग, शासकीय इंजीनियरिंग महाविद्यालय जबलपुर, सचिव इंडियन जियोटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर के असामयिक निधन पर )
नर नहीं,
नर-रत्न थे तुम,
समय कीमत
कर न पाया...
***
विरल थी
प्रतिभा तुम्हारी.
ज्ञान के थे
तुम पुजारी.
समस्याएँ
बूझते थे.
रूढियों से
जूझते थे.
देव ने
क्षमताएँ अनुपम
देख क्या
असमय बुलाया?...
***
नाथ थे तुम
'निशा' के पर
शशि नहीं,
'दिनेश' भास्वर.
कोशिशों में
गूँजता था
लग्न-निष्ठा
वेणु का स्वर.
यांत्रिकी-साहित्य-सेवा
दिग्-दिगन्तों
यश कमाया...
***
''शीघ्र आऊंगा''
गए-कह.
कहो तो,
हो तुम कहाँ रह?
तुम्हारे बिन
ह्रदय रोता
नयन से
आँसू रहे बह.
दूर 'अतिमा' से हुए-
'कौसुन्न' को भी
है भुलाया...
***
प्राण थे
'दिनमान' के तुम.
'विनय' के
अभिमान थे तुम.
'सुशीला' की
मृदुल ममता,
स्वप्न थे
अरमान थे तुम.
दिखाए-
सपने सलोने
कहाँ जाकर,
क्यों भुलाया?...
***
सीख कुछ
तुमसे सकें हम.
बाँट पायें ख़ुशी,
सह गम.
ज्ञान दें,
नव पीढियों को.
शान दें
कुछ सीढियों को.
देव से
जो जन्म पाया,
दीप बन
सार्थक बनाया.
***
नर नहीं,
नर-रत्न थे तुम,
'सलिल' कीमत
कर न पाया...
***
भवन निर्माण संबन्धी वास्तु सूत्र
वास्तुमूर्तिः परमज्योतिः वास्तु देवो पराशिवः
वास्तुदेवेषु सर्वेषाम वास्तुदेव्यम --समरांगण सूत्रधार, भवन निवेश
वास्तु मूर्ति (इमारत) परम ज्योति की तरह सबको सदा प्रकाशित करती है। वास्तुदेव चराचर का कल्याण करनेवाले सदाशिव हैं। वास्तुदेव ही सर्वस्व हैं वास्तुदेव को प्रणाम। सनातन भारतीय शिल्प विज्ञानं के अनुसार अपने मन में विविध कलात्मक रूपों की कल्पना कर उनका निर्माण इस प्रकार करना कि मानव तन और प्रकृति में उपस्थित पञ्च तत्वों का समुचित समन्वय व संतुलन इस प्रकार हो कि संरचना का उपयोग करनेवालों को सुख मिले, ही वास्तु विज्ञानं का उद्देश्य है।
मनुष्य और पशु-पक्षियों में एक प्रमुख अन्तर यह है कि मनुष्य अपने रहने के लिए ऐसा घर बनते हैं जो उनकी हर आवासीय जरूरत पूरी करता है जबकि अन्य प्राणी घर या तो बनाते ही नहीं या उसमें केवल रात गुजारते हैं। मनुष्य अपने जीवन का अधिकांश समय इमारतों में ही व्यतीत करते हैं।
एक अच्छे भवन का परिरूपण कई तत्वों पर निर्भर करता है। यथा : भूखंड का आकार, स्थिति, ढाल, सड़क से सम्बन्ध, दिशा, सामने व आस-पास का परिवेश, मृदा का प्रकार, जल स्तर, भवन में प्रवेश कि दिशा, लम्बाई, चौडाई, ऊँचाई, दरवाजों-खिड़कियों की स्थिति, जल के स्रोत प्रवेश भंडारण प्रवाह व् निकासी की दिशा, अग्नि का स्थान आदि। हर भवन के लिए अलग-अलग वास्तु अध्ययन कर निष्कर्ष पर पहुचना अनिवार्य होते हुए भी कुछ सामान्य सूत्र प्रतिपादित किए जा सकते हैं जिन्हें ध्यान में रखने पर अप्रत्याशित हानि से बचकर सुखपूर्वक रहा जा सकता है।
* भवन में प्रवेश हेतु पूर्वोत्तर (ईशान) श्रेष्ठ है। उत्तर, पश्चिम, दक्षिण-पूर्व (आग्नेय) तथा पश्चिम-वायव्य दिशा भी अच्छी है किंतु दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य), पूर्व-आग्नेय, उत्तर-वायव्य तथा दक्षिण दिशा से प्रवेश यथासम्भव नहीं करना चाहिए। यदि वर्जित दिशा से प्रवेश अनिवार्य हो तो किसी वास्तुविद से सलाह लेकर उपचार करना आवश्यक है।
* भवन के मुख्य प्रवेश द्वार के सामने स्थाई अवरोध खम्बा, कुआँ, बड़ा वृक्ष, मोची मद्य मांस आदि की दूकान, गैर कानूनी व्यवसाय आदि नहीं हो।
* मुखिया का कक्ष नैऋत्य दिशा में होना शुभ है।
* शयन कक्ष में मन्दिर न हो।
* वायव्य दिशा में कुंवारी कन्याओं का कक्ष, अतिथि कक्ष आदि हो। इस दिशा में वास करनेवाला अस्थिर होता है, उसका स्थान परिवर्तन होने की अधिक सम्भावना होती है।
* शयन कक्ष में दक्षिण की और पैर कर नहीं सोना चाहिए। मानव शरीर एक चुम्बक की तरह कार्य करता है जिसका उत्तर ध्रुव सिर होता है। मनुष्य तथा पृथ्वी का उत्तर ध्रुव एक दिशा में ऐसा तो उनसे निकलने वाली चुम्बकीय बल रेखाएं आपस में टकराने के कारण प्रगाढ़ निद्रा नहीं आयेगी। फलतः अनिद्रा के कारण रक्तचाप आदि रोग ऐसा सकते हैं। सोते समय पूर्व दिशा में सिर होने से उगते हुए सूर्य से निकलनेवाली किरणों के सकारात्मक प्रभाव से बुद्धि के विकास का अनुमान किया जाता है। पश्चिम दिशा में डूबते हुए सूर्य से निकलनेवाली नकारात्मक किरणों के दुष्प्रभाव के कारण सोते समय पश्चिम में सिर रखना मना है।
* भारी बीम या गर्डर के बिल्कुल नीचे सोना भी हानिकारक है।
* शयन तथा भंडार कक्ष सेट हुए न हों।
* शयन कक्ष में आइना रखें तो ईशान दिशा में ही रखें अन्यत्र नहीं।
* पूजा का स्थान पूर्व या ईशान दिशा में इस तरह ऐसा की पूजा करनेवाले का मुंह पूर्व दिशा की ओर तथा देवताओं का मुख पश्चिम की ओर रहे। बहुमंजिला भवनों में पूजा का स्थान भूतल पर होना आवश्यक है। पूजास्थल पर हवन कुण्ड या अग्नि कुण्ड आग्नेय दिशा में रखें।
* रसोई घर का द्वार मध्य भाग में इस तरह हो कि हर आनेवाले को चूल्हा न दिखे। चूल्हा आग्नेय दिशा में पूर्व या दक्षिण से लगभग ४'' स्थान छोड़कर रखें। रसोई, शौचालय एवं पूजा एक दूसरे से सटे न हों। रसोई में अलमारियां दक्षिण-पश्चिम दीवार तथा पानी ईशान में रखें।
* बैठक का द्वार उत्तर या पूर्व में हो। deevaron का रंग सफेद, पीला, हरा, नीला या गुलाबी हो पर लाल या काला न हो। युद्ध, हिंसक जानवरों, शोइकर, दुर्घटना या एनी भयानक दृश्यों के चित्र न हों। अधिकांश फर्नीचर आयताकार या वर्गाकार तथा दक्षिण एवं पश्चिम में हों।
* सीढियां दक्षिण, पश्चिम, आग्नेय, नैऋत्य या वायव्य में हो सकती हैं पर ईशान में न हों। सीढियों के नीचे शयन कक्ष, पूजा या तिजोरी न हो। सीढियों की संख्या विषम हो।
* कुआँ, पानी का बोर, हैण्ड पाइप, टंकी आदि ईशान में शुभ होता है, दक्षिण या नैऋत्य में अशुभ व नुकसानदायक है। * स्नान गृह पूर्व में, धोने के लिए कपडे वायव्य में, आइना पूर्व या उत्तर में गीजर तथा स्विच बोर्ड आग्नेय में हों।
* शौचालय वायव्य या नैऋत्य में, नल ईशान पूव्र या उत्तर में, सेप्टिक tenk उत्तर या पूर्व में हो।
* मकान के केन्द्र (ब्रम्ह्स्थान) में गड्ढा, खम्बा, बीम आदि न हो। yh स्थान खुला, प्रकाशित व् सुगन्धित हो।
* घर के पश्चिम में ऊंची जमीन, वृक्ष या भवन शुभ होता है।
* घर में पूर्व व् उत्तर की दीवारें कम मोटी तथा दक्षिण व् पश्चिम कि दीवारें अधिक मोटी हों। तहखाना ईशान, या पूर्व में तथा १/४ हिस्सा जमीन के ऊपर हो। सूर्य किरंनें तहखाने तक पहुंचना चाहिए।
* मुख्य द्वार के सामने अन्य मकान का मुख्य द्वार, खम्बा, शिलाखंड, कचराघर आदि न हो।
* घर के उत्तर व पूर्व में अधिक खुली जगह यश, प्रसिद्धि एवं समृद्धि प्रदान करती है।
वराह मिहिर के अनुसार वास्तु का उद्देश्य 'इहलोक व परलोक दोनों की प्राप्ति है। नारद संहिता, अध्याय ३१, पृष्ठ २२० के अनुसार-
अनेन विधिनन समग्वास्तुपूजाम करोति यः
आरोग्यं पुत्रलाभं च धनं धन्यं लाभेन्नारह।
अर्थात इस तरह से जो व्यक्ति वास्तुदेव का सम्मान करता है वह आरोग्य, पुत्र धन - धन्यादी का लाभ प्राप्त करता है।
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